मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-18)

अगर तुम्हें सचाई का शौक है

अगर तुम्हें सचाई का शौक है
तो खाना मत खाओ तुम
कहते हैं बुद्धिमान
पहनो मत वस्त्र और
रहो तुम वनवासी बर्बरों की स्थिति में
सड़कों पर फेंक दो
अपनों को बच्चों को
वीरान सूरज की किरनों से घावों को सेंक लो
दुनिया के किसी एक
कोने में चुपचाप
जहर का घूंट पी
मर जाने के लिए
माता-पिता त्याग दो
अपनी ही जिन्दगी के सिर पर
डाल तुम आग लो !!
अगर तुम्हें सचाई का शौक है
तो बीवी को दुनिया के जंगल में छोड़ दो
मृत्यु के घनघोर अँधेरे को ओढ़ लो
अगर तुम्हें सचाई का शैक है
तो भूखों मर जाओ तुम
स्वयं की देह पर केरोसीन डालकर
आग लगा भवसागर पार कर जाओ तुम
अगर तुम्हें जीने की गरज है
तो शरण आओ हमारे
 चरण में बैठ जाओ
हमारी खटिया पर, पलंग पर लेट जाओ
पैर यदि लम्बे हों ज्यादा तो
उन्हें काट देंगे हम
खटिया के बराबर-बराबर
देह छाँट देंगे हम
जाते हों हाथ तो
उन्हें छाँट डालेंगे
पलंग के बराबर-बराबर
तुम्हें काट डालेंगे !!
हमारी खाट बहुत छोटी है
अगर न जम सको तो
यह तुम्हारी
किस्मत ही खोटी है
दीर्घतर हमसे यदि दूर तक
जाती हो दृष्टि -
निकाल आँखे लेंगे हम
कॉक की नयी आँखे बैठाकर
काम तुमसे लेंगे हम
हम जैसे खोटे सिक्कों-जैसे तुम चल जाओ
हमारी आत्मा के साँचे में ढल जाओ
यदि तुम्हें जीने की गरज है !!

यदि तुम्हे जीने की गरज है -
हमारे हवामहल में
इन्द्र का अण्डरवेअर
अप्सरा की इन्द्रधनुषी चूनरी
रम्भा का लहँगा पहन
सांस्कृतिक नाच नाचो
शिखण्डी के रहस्यवादी
नये सामरस्यवादी
मुद्राओं में मन्द-ताल दु्रत-ताल
यह बात सही है कि बहरहाल
तुम्हारे घर में चाहे जलें
या न जलें चूल्हे
नाचो-नाचो मटकाओ-मटकाओ
अपने कूल्हे !!

सर्कस है, रिंगमास्टर बड़ा जबर्दस्त है
कारोबार चुस्त उसका, हम ही अस्तव्यस्त हैं !!

(अपूर्ण मुक्तिबोध रचनावली खण्ड एक, संभावित रचनाकाल 1953-56)

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वह
मानव-स्वभाव एक पहेली है। सह्दय व्यक्ति कभी-कभी इतना कठोर हो जाता है, इतना निष्ठुर हो जाता है, इतना अन्धा हो जाता है मैं अपने को ह्दयवान समझता आ रहा था। पर उस दिन से मैंने अपने पर विश्वास करना छोड़ दिया है। मानव-स्वभाव समाज से विद्रोह करे तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि वह कभी-कभी स्वयं से ही विद्रोह कर बैठता है। इससे भयानक विद्रोह और कौन-सा हो सकता है?

(कहानी, सम्भावित रचनाकाल 1936-37 रचनावली खंड-3 में संकलित)
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मै फिलॉसफर नहीं हूँ

और, जनाब, मुआफ कीजिए, मैं कोई ले मैन-साधारण आदमी-नहीं हूँ। मैं कालेज में प्रोफेसर हूँ, और घर में जनक हूँ, और थियॉसॉफिकल लाज में फिलॉसफर के नाम से मशहूर हूँ। कवि मैं जन्म से ही हूँ, पर अब मैंने कविता लिखना छोड़ दिया है, क्योंकि राजनीति के अभ्यास में दत्तचित्त हूँ। मैं हमेशा मेटीरियलिस्ट हूँ, घर में ऐथीस्ट हूँ। फिलॉसॉफिकले क्लब में प्रैग्मेटिस्ट हूँ। इसी-लिए सब-कुछिस्ट हूँ।
सो, साहब मैं साधारण आदमी नहीं हूँ,  असाधारण हूँ, और साहित्य में युग-धर्म का पक्षपाती हूँ। घर क्यों जी, यह तो बतलाओं, कि दुनिया को जिस रुप में वह है उस रुप को अत्यंत सत्य मानते हुए मन क्यों उचट जाता है? उस माने हुए सत्य की भयंकर व्यर्थता का भान क्यों जीवन के फल को अन्दर से कुरेदने लगता है? 

(कहानी, कर्मवीर 30 सितंबर 1939 में प्रकाशित खंड-3 में संकलित)
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एक दाखिल-दफ्तर साँझ
पल-भर की चुप्पी के बाद रामेश्वर ने कहा, प्रगतिवादी, इस शब्द से मैं डरता नहीं, किन्तु दुर्भाग्य से मैं अब सरकारी नौकर हूँ। सरकारी नौकर की विचारधारा नहीं होती, होती भी है तो उसके अनुसार कार्य करना मना है। पेट की गुलामी कर रहा हूँ आत्मा को बेचकर। मात्र वेश्यावृत्ति पर हम लोग जीवित हैं। किसी वेश्या को सुहागन कहने से उसका अपमान ही होता है। वैसा अपमान तुम कर रहे हो मेरा। ...और वह भी आज इस मौके पर ...रामेश्वर को फूट-फूटकर रोने की इच्छा होने लगी। वर्मा के कन्धे पर से हाथ हट गया और शिथिल होकर नीचे लटकने लगा।
(कहानी-सम्भावित रचनाकाल 1948-1958 के बीच। साप्ताहिक हिन्दुुस्तान, नवंबर 1968 में प्रकाशित, रचनावली खंड 3 में संकलित)
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भूमिका

अगर मेरी कविताएं पसन्द नहीं
उन्हें जला दो,
अगर उसका लोहा पसन्द नहीं,
उसे गला दो,
अगर उसकी आग बुरी लगती है
दबा डालो,
इस तरह बला टालो  !!

लेकिन याद रखो
वह लोहा खेतों में तीखा तलवारों का जंगल बन सकेगा
मेरे नाम से नहीं, किसी और नाम से सही,
और वह आग बार-बार चूल्हे में सपनों-सी जागेगी
मेरे नाम से नहीं किसी और नाम से सही।
लेकिन मैं वहां रहूंगा,
तुम्हारे सपने में आऊंगा
सताऊँगा
खिलखिलाऊँगा।
खड़ा रहँूगा
तुम्हारी छाती पर अड़ा रहूँगा।

यह भी एक पेशा रहा है   
जिसका जोर हमेशा रहा है।
(रचनावली खण्ड 2 अंतिम अध्याय कवितांश में संकलित, सम्भावित रचनाकाल 1960-61)
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तीसरा क्षण-1

उसने मेरी तरफ देखकर सिर्फ इतना ही कहा, ' मैं चाहता हूँ'  कि साहित्य-सम्बंधी धारणाएँ वास्तविक साहित्य में विश्लेषण के आधार पर बनायी जायें। जिस प्रकार विज्ञान में इण्डक्शन से डिडक्शन पर आया जाता है- तथ्यों के, संग्रह से उनके विश्लेषण द्वारा, उनके सामान्यीकरण से अनुमान और निष्कर्ष निकाले जाते हैं-उसी प्रकार साहित्य में इण्डक्शन से डिडक्शन पर क्यो ंन आया जाये? इण्डक्शन का क्षेत्र केवल हिन्दी साहित्य तक ही सीमित क्यों रहे? उपन्यास क्या है, यह पढ़ाते समय हम विश्व के प्रमुख उपन्यासों के उपरांत ही यह ठहरायें कि उपन्यास किसे कहते हैं और उसका शिल्प क्या है अथवा उसके प्रधान अंग क्या होते हैं- इसी प्रकार साहित्य में सौन्दर्य किये कहते हैं, इस प्रश्न के ऊहापोह का क्षेत्र केवल हिन्दी की आत्मपरक कविता और हिन्दी साहित्य तक सीमित न रखें। यदि हमने क्षेत्र विस्तृत किया तो हम पायेंगे कि सौन्दर्य - सम्बन्धी हमारी परिभाषा अस्पष्टता के दोष से अथवा अव्याप्ति और अतिव्याप्ति के दोषों से रहित होगी।
 (एक साहित्यिक की डायरी, पृष्ठ 16-17)
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तीसरा क्षण-2

इसीलिए फैण्टैसी में संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदनाएँ रहती है। कृतिकार को लगातार महसूस होता रहता है कि उसका अनुभव सभी के लिए महत्वपूर्ण और मूल्यवान् है। तो मतलब यह कि भोक्तृत्व और दर्शकत्व का द्वन्द्व एक समन्वय में लीन होकर एक-दूसरे के गुणों का आदान-प्रदान करता हुआ सृजन-प्रक्रिया आगे बढ़ा देता है। दर्शक का ज्ञान और भोक्ता की संवेदना परस्पर-विलीन होकर अपने से परे उठने की भंगिमा को प्रोत्साहित करती रहती है। इस प्रकार सृजन-प्रक्रिया के विशिष्ट में सर्वसामान्य महत्व प्रतिबिम्बित होता-सा प्रतीत होता है। दूसरे शब्दों में, संवेदना के स्थितिबद्ध गहरे रंग दृष्टि के स्थिति-मुक्त रूप से परिष्कृत होकर प्रातिनिधिक हो उठते हैं। मेरा ऐसा खयाल है। कला के दूसरे क्षण में उपस्थित फैण्टैसी की इकाई में संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना कुछ इस प्रकार समायी रहती है कि लेखक उन्हें शब्द-बद्ध करने के लिए तत्पर हो उठता है।
यहाँ से कला के तीसरे क्षण का आरम्भ होता है। अब मजा देखिए। मेरी बात ध्यान से सुनना !
अब यहाँ से एक नये संघर्ष की कहानी शुरु होती है। लेखक ज्यों ही फैण्टैसी शब्दों में व्यक्त करने लगता है, फैण्टैसी के रंग घुलने लगते हैं, और सतत प्रवाहित होने लगते हैं। व्यक्त करने के दौरान, प्रकट करने की प्रक्रिया में फैण्टैसी बदलने लगती है ऐसा क्यों होता है?   

(एक साहित्यिक की डायरी, पृष्ठ 23)
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तीसरा क्षण-3
असल में उन दिनों घर में बीमारियों ने कई बिस्तर बिछा रखे थे। जिन्दगी में मुझे उन बातों की तालीम लेना पड़ी है कि जिन बातों को मेरे स्वभाव के विरुद्ध कहा जा सकता है। फलत: स्वभाव-विरुद्ध बातों की अनिवार्यत: तालीम लेने की भीषण प्रक्रिया में मेरी तबीयत भी खराब हो गयी।

तीसरा क्षण-4
इस मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के पीछे भाषा की अगाध अनवरत साधनाशक्ति है। भाषा फैण्टैसी को काटती-छाँटती है और इस प्रक्रिया के विपरीत फैण्टैसी भाषा को सम्मान और समृद्ध भी  करती है।
कवि की यह फैण्टैसी भाषा को समृद्ध बना देती है, उसमें नये अर्थ-अनुषंग भर देती है, शब्द को नये चित्र प्रदान करती है। इस प्रकार, कवि भाषा का निर्माण करता है। जो कवि भाषा का निर्माण करता है, विकास करता है, वह निस्संदेह महान कवि है।

(एक साहित्यिक की डायरी, पृष्ठ 25-28)
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प्रगतिवाद  - एक  दृष्टि
राजनैतिक दृष्टि से  प्रगतिवाद प्रसार का हिमायती है , वर्गहीन समाज -सत्ता का पुजारी है। उसका विश्वास है कि राजनीति के द्वारा ही हम एक देश के दलित दूसरे देशों के शोषितों के सम्पर्क में आ सकेंगे, और इस प्रकार एक वृहनमानवता का आलोडऩ होगा। ऐसी वर्गहीन समाज - सत्ता इस समय न होने के कारण वह क्रान्ति का पुजारी है। इसीलिए वह जनता के साथ घनिष्ठतम-घोरतम सम्पर्क रखना चाहता है। और कलाकारों से कहता है कि तुम अधिक से अधिक जनहृदय के सम्पर्क में आओ और  क्रान्ति को शीघ्र आगमनशील बनाओ।
(आगामी कल  , मई 1942  में प्रकाशित, रचनावली खंड 5 में संकलित)

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