मुक्तिबोध:प्रतिदिन (भाग-10)

नामवर सिंह को पत्र

(दिनांक- 6 अगस्त 1961)

'कवि' में आपने मेरे संबंध में जो कुछ लिखा, उसके लिए मैं किन शब्दों में धन्यवाद दूँ। औपचारिक पत्र लिखने का मुझे बिलकुल अभ्यास नहीं है। दिल की कहूँ तो यह कि अगर आप मेरे समीप होते तो गले लगा लेता, इसलिए नहीं कि तारीफ़ हुई है वरन इसलिए कि एक सुदूर अजाने कोने से एक समानशील सहधर्मा मिला। समानधर्मा शब्द पर शायद आपको आपत्ति हो, किंतु अपनी कमज़ोरियों और दोषों मे आपके शामिल नहीं कर रहा हूँ।
     लेकिन मुझे बरबस यह याद आया। शुरू-शुरू में तार सप्तक के प्रकाशन के अनंतर ही, प्रगतिशील क्षेत्र में नयी कविता को बड़ी गालियाँ पड़ी। आलोचना आवश्यक थी, विरोध आवश्यक नहीं था। ख़ैर यह पिछली बात हुई। हुई -गई। लिखने का कारण यह है, आगे चलकर, क्या इस आंदोलन को फिर से उठाना जरूरी नहीं  है, विशेष संशोधनों के साथ - यह सवाल दरपेश है। आशा है, आप इस पर अवश्य सोचेंगे।
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(दिनांक 6 अगस्त 1961)

'कामायनी-एक पुनर्विचार' में बहुत -सी त्रुटियां हैं-मुख्यत: रचना-सौंदर्य, या प्रबन्ध लालित्य के संबंध में। इतना अवकाश नहीं था कि लिखे को सुधार सकूँ। पुनरावृत्तियां भी हैं-लेकिन वे ज़्यादा ज़ोर देने के लिए समझा समझाकर कहने के लिए। मुख्य बात तो उसकी दृष्टि है। उसका मैं पक्षपाती हूँ। आपने मार्क्सवादी जार्गन की बात कही। साधारणत: मैं अपने लेख आदि में इस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग नहीं करता। आपका यह कहना बहुत ही सही है कि आज स्थिति मे इस  प्रकार की शब्दावली में बात करना अनुचित है। मैं आपसे पूर्णत: सहमत हूँ।
    किंतु 'कामायनी' की व्याख्या में, मैं इसे टाल नहीं सकता था। यदि मैं यह  मानता हूँ कि 'देव-सभ्यता' सामंती सभ्यता का प्रतीक-चित्र है, कि जिस देव -सभ्यता के नाश के पुत्र -रूप में मनु की स्थापना की गयी है तो वैसी स्थिति में, सामंती सभ्यता के आगे क़दम-पूंजीवादी सभ्यता, पूँजीवादी व्यक्तिवाद में सब शब्द अपरिहार्य हो जाते हैं। प्रसाद जी इसी पूँजीवादी सभ्यता के डूम (Doom) की अपने ढंग से तस्वीर खड़ी करते हैं। यदि इस प्रकार की शब्दावली में बात न की गयी तो सामंती सभ्यता के नाश से  जन्मित सभ्यता के डूम (Doom) तक आने के इस पूरे क्रम की व्याख्या हो नहीं सकती।
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श्रीकांत वर्मा को पत्र
(अक्टूबर-नवंबर 1956) 

      मैं समझता हूँ कि श्री भारती ने जो कंट्रोवर्सी (controversy) पैदा की है, उसका उद्देश्य प्रतिक्रियावादी भले ही हो,वह बहुत मूल्यवान है, और उस पर चर्चा होना बहुत आवश्यक है। ध्यान में रखिए, वह दाना दुश्मन है, नादान दोस्त नहीं। इसलिए उसकी इज़्ज़त होनी चाहिए। वह प्रतिभाशाली है और प्रॉबलम्स (problems) को खूब फील (feel) करता है। वस्तुत: मैं उसके साहस से बहुत प्रभावित हूँ। वह असल है, घटिया नक़ल नहीं। यह ठीक है कि वह असलियत हमें पसंद नहीं। किंतु असलियत का विरोध दूनी बड़ी असलियत की डिगनिटी (dignity) से होना चाहिए और उसे दूनी बड़ी असलियत की शक्ति और गरिमा से। श्री भारती से लोहा लेना ही होगा लेकिन पाठकों को कंफ्यूज (confuse) करके नहीं, उन्हें समस्या समझाते हुए।

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(दिनांक-17 -8 -58)

    पेरिस पैस्टरनैक अगर आपने अदीब का लेख छापा तो दूसरे पक्ष से भी लिखवाया जाना चाहिए था। कभी -कभी आप लोग राजनैतिक प्रश्न भी छेड़ देते हैं। मैं तो इस पक्ष में हूँ कि राजनीति साहित्य से अलग नहीं की जा सकती। किन्तु यदि आप भी यह मानते हैं, तो मुझे ख़ुशी है। ऐसी स्थिति में यह सोचता हूँ कि 'कृति' को प्रगतिशील राजनैतिक दृष्टि अपनाना चाहिए।
(रचनावली खंड 6 में संकलित)
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(दिनांक 2 -5-1960)

    आपके पास  मैं श्री विनोद कुमार शुक्ल की कविताएँ प्रकाशनार्थ भेज रहा हूँ। उनकी  कविताएँ मुझे पसंद हैं। लेकिन चूँकि मैं दैनन्दिन प्रकाशित होने वाली काव्य -धाराओं से पूर्णत:,परिचित नहीं रहता, इसलिए चाहता हूँ कि आप उन्हे स्कूटीनाइस (scrutinise) कर लें, कहीं उनमें उधार ली हुई गूँजे और अनायास आगमित छायाएँ तो नहीं हैं। मेरे खय़ाल से विनोद कुमार मेधावी तरूण है और उनमें विशेष काव्य-प्रतिभा है। फिर भी हीरे को गढना होगा, चोटें जरूरी हैं। इसलिए मैं आपसे एक बार पढ़वा लेना चाहता हूँ। यदि पसंद आयी तो आप अवश्य प्रकाशित कीजिएगा।
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(दिनांक- 14 नवंबर 1963)

'लहर' के विश्व काव्य वाले अंक में आपकी कविता पढ़ी। वह कविता नि:संदेह पढऩे वाले में दर्द पैदा करती थी। शायद ही ऐसी दर्द वाली कविता मैंने हिंदी में पढ़ी हो। अगर सिफऱ् दर्द ही दर्द होता तो शायद सोचने को मजबूर न होना पड़ता।  उसमें एक भयानक निराशा का स्वर था। उस कविता को पढ़कर आपकी जि़ंदगी  का खय़ाल आना स्वाभाविक था। छत्तीसगढ़ का यह  मेरा प्यारा कवि क्या का क्या हो गया। उस छत्तीसगढ़ में, जहां मुझे  मेरे प्यारे छोटे छोटे लोग मिले, जिन्होंने मुझे बांहों में समेट लिया, और बड़े भी मिले जिन्होंने मुझे सम्मान और सत्कार प्रदान करके संकटों से बचाया। मै उन्हीं के कारण-आप सब के कारण, हाँ, आपके कारण, मनुष्यता में विश्वास खो नहीं पाता-मैं सैद्धांतिक बात नहीं बता रहा हूँ। उस छत्तीसगढ़ का मैं  ऋणी हूँ, जिसने मुझे और मेरे बाल-बच्चों को शांतिपूर्वक जीने का क्षेत्र दिया। उस छत्तीसगढ़ की भूमि ने  जो अत्यन्त प्रतिभाशाली पुत्र पैदा किया, वह दिल्ली जाकर-इतना अधिक विपद-ग्रस्त हो गया कि दु:ख होता है।

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